कितना खौफनाक था कंगारू कोर्ट?

कितना खौफनाक था कंगारू कोर्ट?

जन अदालत में जारी होते थे माओवादियों के फरमान, मार दी जाती थी गोली

कंगारू कोर्ट के नाम से जाना जाने वाला माओवादियों के जनअदालत से लोग खाते थे खौफ



दिवंगत आशुतोष रंजन

प्रियरंजन सिन्हा

गढ़वा : झारखंड और बिहार में भाकपा माओवादी अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है। लेकिन एक दौर वह भी था, जब झारखंड और बिहार के कई इलाकों में माओवादी समानांतर सरकार चलाते थे। उनकी अपनी अदालतें थीं। वे अपनी इन अदालतों में अपना फैसला सुनाते थे और लोगों को उनका फैसला मानना पड़ता था। माओवादी इन अदालतों को जन अदालत कहते थे। जबकि आधुनिक भाषा में इसे कंगारू कोर्ट कहा जाता है।

माओवादी अपनी जन अदालत में कई हिंसक फैसले सुनाते थे और सैकड़ों लोगों की भीड़ के सामने लोगों को गोली भी मार दी जाती थी। 2015-16 तक माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों में खुलेआम जन अदालत लगाते थे। 2020-21 तक जन अदालत का दायरा काफी सिकुड़ गया है। अब जन अदालत की खबरें बाहर नहीं आती हैं।

झारखंड में माओवादियों के कंगारू कोर्ट या जन अदालत ने कई क्षेत्रों में भय और आतंक का माहौल बनाया था। विशेष रूप से ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में। ये कोर्ट भाकपा माओवादी द्वारा स्थापित किए जाते थे। ताकि उनके नियंत्रण वाले क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की जा सके और स्थानीय लोगों पर नियंत्रण रखा जा सके।


कंगारू कोर्ट माओवादियों द्वारा आयोजित अवैध और अनौपचारिक अदालतें थीं। जहां वे अपने नियमों के आधार पर फैसला सुनाते थे। ये अदालतें आमतौर पर जंगलों या दूरदराज के गांवों में आयोजित की जाती थीं। जहां सरकारी मशीनरी की पहुंच बहुत कम थी। स्थानीय लोगों को जबरन इन अदालतों में शामिल होने के लिए बुलाया जाता था और माओवादी नेता या कमांडर इसमें न्यायाधीश की भूमिका निभाते थे।


क्या था कंगारू कोर्ट माओवादियों की जनअदालत की कब हुई थी शुरुआत

माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों में जन अदालत लगाते थे। जन अदालत में स्थानीय ग्रामीणों को शामिल किया जाता था। जमीन विवाद, पारिवारिक विवाद, सामाजिक, आपराधिक समेत कई मामलों पर माओवादी जन अदालत में अपना फैसला सुनाते थे। जिस जगह जन अदालत लगती थी, वहां के स्थानीय ग्रामीणों को इसमें शामिल किया जाता था।

जन अदालत में कुछ स्थानीय ग्रामीणों को पंच की भूमिका में रखा जाता था। जबकि माओवादी दस्ते का शीर्ष कमांडर जन अदालत की मुख्य भूमिका में होता था। वह न्यायाधीश के रोल में होता था। जमीन विवाद को लेकर 70 के दशक में जन अदालत की शुरुआत हुई थी। 80 के दशक के बाद जन अदालतों में हिंसक फैसले आने लगे। 1980 के बाद पहली बार हजारीबाग में हिंसक जन अदालत लगी और यह जन अदालत पुलिसकर्मियों के खिलाफ थी।

“शुरुआत में जमीन संबंधी मामलों के लिए पंचायत होती थी और फैसले सुनाए जाते थे। 1980 के बाद स्थिति बदल गई। जन अदालत में हिंसक फैसले होने लगे। एमसीसी, पार्टी यूनिटी, पीडब्लूजी का अलग-अलग इलाकों में प्रभाव था। एमसीसी सबसे हिंसक जन अदालत लगाती थी। पार्टी का कोई कैडर भी अपराध करता तो उसके हाथ-पैर काट दिए जाते थे। 2004 में आपसी विलय के बाद हाथ-पैर काटने की प्रथा बंद हो गई। आज जो स्थिति है, वह किसी से छिपी नहीं है। हिंसक फैसलों और बदलते हालात के कारण स्थिति कमजोर होती चली गई” – सतीश कुमार, पूर्व शीर्ष माओवादी

ग्रामीणों को किया जाता था जबरन इकट्ठा

जन अदालत लगने से पहले माओवादी ग्रामीणों को इकट्ठा करते थे। गांव के मुखिया या जानकार व्यक्ति को माओवादी दस्ता सूचना देता था कि ग्रामीणों को इकट्ठा होना है। जो ग्रामीण जन अदालत में भाग नहीं लेते थे, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता था। जन अदालत में भाग नहीं लेने वाले ग्रामीणों को जंगल में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था और ग्रामीणों द्वारा उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था।

“कई बार माओवादियों ने मुझसे ग्रामीणों को इकट्ठा करने को कहा था। जो ग्रामीण जन अदालत में भाग नहीं लेते थे, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता था.” – सिकंदर सिंह, पूर्व मुखिया डगरा

जमीन विवादों को लेकर लगी अधिक जन अदालतें

माओवादी आंदोलन के हिंसक दौर की शुरुआत के बाद सबसे ज्यादा जन अदालतें लगाई गईं। सबसे ज्यादा जन अदालतें जमीन विवादों को लेकर लगाई गईं। जन अदालतों के जरिए जमीन विवादों का निपटारा किया जा रहा था। 1990 से अब तक जन अदालतों के जरिए माओवादियों ने हजारों एकड़ जमीन पर कब्जा किया। सबसे ज्यादा जमीन पलामू, गया, अरवल, जहानाबाद, चतरा, लातेहार और गढ़वा के इलाकों में कब्जाई गई। माओवादी जन अदालतों के जरिए जमीनों पर कब्जा कर स्थानीय ग्रामीणों को खेती के लिए देते थे. माओवादी खेती वाली जमीन का 10 से 25 फीसदी हिस्सा ले लेते थे।

कंगारू कोर्ट का सबसे बड़ा असर डर का माहौल था। ग्रामीणों को लगता था कि माओवादी हर जगह नजर रख रहे हैं और कोई भी छोटी सी गलती उनकी जान ले सकती है। कई गांवों में माओवादियों के डर से लोग रात में घर छोड़कर जंगल में छिप जाते थे। पलामू के मनातू निवासी विनोद उरांव ने बताया कि जन अदालत के डर से वे तीन साल तक गांव से बाहर रहे।

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Ashutosh Ranjan

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