गुज़रता वक्त कह रहा आज,घर में ही अदा करें ईद की नमाज़
आशुतोष रंजन
गढ़वा
आपने मेरे ख़बर के शीर्षक को पढ़ा होगा तो ज़रूर यह सोचा होगा कि यह क्या ईद तो ख़ुशियों का त्योहार होता है,तो भला ईद मातमी कैसे हो सकता है,आपका सोचना भी बिल्कुल लाज़िमी है,लेकिन ज़रा आप ही दिली संज़ीदगी से सोचिए कि क्या गांव,क्या शहर,नगर और महानगर,हर कोने से सिसकने,कराहने और रोने बिलखने की आवाज़ आ रही है,वज़ह है कोरोना,उक्त महामारी प्रतिरोज़ नहीं बल्कि प्रतिक्षण लोगों को निगल रहा है,जहां शवों से श्मशान पटे पड़े हैं,वहीं जनाज़े को दफ़न करने को ले कर लोग क़ब्रिस्तान में अपनी बारी का राह ताक रहे हैं,ऐसे विषम हालात और रूह तक पेवस्त सिसकन के बीच यह ईद भला ख़ुशियों वाली कैसे कही जा सकती है,इसीलिए हमने ख़बर का शीर्षक दिया यह ईद मातमी है,आज ज़्यादा कुछ और नहीं लिखना चाहूंगा बस इतना ही कहूंगा कि इस ईद से पहले भी हम सबों ने ईद मनायी है,याद कीजिये कितनी खुशियां होती थीं,चांद दिखने के साथ ही फ़ोन के साथ साथ एक दूसरे के घरों में जा कर चांद मुबारक़ कहते हुए बधाई दी जाती थी,लेकिन कितनी कसक है आज,आपने अपने अपने घरों के बालकनी से चांद देखा और परिवार के लोगों को चांद मुबारक़ कहा,साथ ही दूर के लोगों को भी कहा,जरिया बना फ़ोन,आपने लोगों को फोन किया और whats app और फेसबुक के जरिये मैसेज भेजा,लेकिन घर की दहलीज़ लांघना मुनासिब नहीं समझा,क्योंकि कोरोना से बचाव का एकमात्र उपाय सामाजिक दूरी है,उधर जो बाज़ार कभी ईद की ख़रीददारी से गुलज़ार रहा करते थे आज वो वीरान पड़े हुए हैं,हां यह बात जरूर कही जा रही है कि दुकान तरीक़े से खोले जा रहे हैं और बिक्री,ख़रीददारी भी हो रही है,लेकिन उस बात का किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है,मेरे कहने का मतलब यही है कि वर्तमान गुज़रते कोरोना दौर ने हर तरह से ख़ुशियों पर विराम लगा दिया है,भला हम आप कैसे मुस्कुरा सकते हैं,हम त्योहार मना कर कैसे चहक सकते हैं,हर किसी के पड़ोस में लोग बीमार हैं,हर ओर से कराहने और मौत की ख़बर सुन सिसकने की आवाज़ सुनायी दे रही है,तो भला ऐसे करुण हालात में कैसे मनायी जा सकती है ईद ख़ुशियों की,इतना कहने के साथ साथ सीधे रूप में यह भी जरूर कहना चाहेंगे कि "गुज़रता वक्त कह रहा है आज,आप घर में ही अदा करें ईद की नमाज़।"
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