दे दीजिये शुरुआती आग,कहीं लग ना जाये अंतिम आग का दाग
आशुतोष रंजन
गढ़वा
“ठंढा हो रहा देंह, है आग की दरकार, कहां हैं बाबू सरकारी और किधर है सरकार” जी हां यह कोई जुमला नहीं बल्कि लोगों के दिलों से शब्दों के रूप में निकल रही एक कसक है,दरअसल अचानक बढ़े ठंढ ने हाड़ कंपाना शुरू कर दिया है,लेकिन सरकारी तौर पर अभी तलक अलाव की नहीं हुई व्यवस्था ने ठंढ की सितम को और बढ़ा दिया है।
कहां है आग:- जाड़े का मौसम आने से पहले गरीबों के देंह को कंबल के साथ साथ उसे अलाव की गर्मी से गर्म करने की कवायद सरकार द्वारा जरूर शुरू होती है पर लापरवाही और उदासीनता उसे धरातल पर मूर्त रूप नहीं लेने देता,जिसका नतीजा होता है कि कहां है आग,कहां है आग यह गुहारते-गुहारते थक जाते हैं,लेकिन उन्हें सरकारी आग नहीं मिल पाता।
खुद के आग से तप रहे हैं लोग : सरकार द्वारा निःशुल्क गैस चूल्हे का वितरण भले हो रहा हो पर आग तापने के लिए लकड़ी ही महफ़ूज है,पर अफशोस आज वह लकड़ी उनके लिए महरूम है,कंपकंपाती ठंढ से देंह को बचाने के लिए लोग आज किसी किसी प्रकार लकड़ी का जुगाड़ कर उसे अलाव के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं,पर सरकारी आग उनके पहुंच से अभी दूर है।
ठंढ के अहसास से दूर है प्रशासन : प्रखंड से ले कर जिला मुख्यालय तक सरकारी आग जलने का इंतज़ार कर रहा है,पर शायद अभी तलक जिला प्रशासन को ठंढ का अहसास नहीं हुआ है,तभी तो सरकारी आग की व्यवस्था नहीं कि जा सकी है,लोग हर चौक चौराहे पर अलाव की आस में पहुंचते जरूर हैं पर वहां कोई व्यवस्था ना देख उनका शरीर और ठिठुर जाता है।
एक तरफ़ ठंढ से ही ठिठुर कर आग मांगते लोग,दूसरी ओर वादों की आग से धाह दिखाता प्रशासन,ऐसे में जरूरत है जिला प्रशासन को जल्द से अलाव की व्यवस्था करने की, ताकि शुरुआती ठंढ की यह ठिठुरन किसी के लिए अंतिम आग की व्यवस्था करने का दाग न दे जाए ?
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