कब तक जुआ में हारते रहेंगे किसान..?
आशुतोष रंजन
गढ़वा
वर्षो से हर साल सुखा के लिए अभिशप्त जिला गढ़वा में अगर किसी साल कुछ खेती हो जाए तो इसे ऊपर वाले कि रहमत ही कह सकते हैं,अब तक के गुज़रे सालों में लगातार सुखा का सामना कर चुके गढ़वा के लोग अब पूरी तरह निरास होकर खेती किया करते हैं,हर साल उम्मीद पर कायम रह कर खेती करने वाले यहां के किसानों को ज्यादा नाउम्मीदी ही हाथ आती है,आख़िर ऐसा क्यों है और कब यहां के किसानों को इससे निजात मिलेगी यह सवाल अब तलक अनुतरित है।


उस पर छाई उदासी है: – जब भी सुखा के बावत कुछ लिखता हूं तो इस पंक्ति के साथ हालात को स्पष्ट करता हूं की “सब ताल तलैया सूखे पड़े हैं,हर घाट गगरिया प्यासी है,खिलने थे जिस चेहरे को,उस पर छाई उदासी है”,यहां मुझे आपको बताने की ज़रूरत इसलिए नहीं है क्योंकि आप हालात से प्रतिरोज नहीं बल्कि प्रतिक्षण वाक़िफ हो रहे हैं,लेकिन कमोवेश हर साल मायूसी हाथ आने के बाद भी एक आस के साथ की शायद इस साल खेती हो जाए इसी उम्मीद के साथ इस बार भी किसानो ने खेती शुरू कि है,यहां यह भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की गढ़वा में खेती को जुआ कि संज्ञा दी गयी है,जहां किसान हर साल जुआ खेलते हैं,पर पाले में हर बार अपेक्षित सफलता के बजाये हार ही आती है,खेतों में सूखते धान के बिचड़े परिलक्षित कर रही है गढ़वा में इस साल भी पड़ने वाले सुखाड़ को,जो खेत सोना उगलने कि क्षमता रखा करते हैं वही खेत अपने सिने पर चौड़े चौड़े दरार लेकर वर्सो बरस तक जख्मी रहा करते हैं,लोग तपती धुप में भी कभी आग उगलते सूर्य तो कभी आसमान कि तरफ टकटकी लगाए रहते हैं,कि कब दो बूंद बरसे कि खेत के साथ साथ अपना सुखा गला भी तर हो सके,एक बार फिर किसानो ने जुआ खेलना शुरू कर दिया है,फिर से खेतो का सीना चीरने कि प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है,कही हल चल रहे हैं तो कही हल चले खेतो को समतल किया जा रहा है,किसान कहते हैं कि ऊपर वाले के भरोसे पर खेती किया करते हैं,अब वही जाने कि पैदा होगा या नहीं,गढ़वा में अब तक हुए खेती के लिए उपयुक्त बारिस का अंदाजा सुदूर गाँव में जाने पर लग जा रही है,जहां खेतों में जुताई करने के बजाय सुखा दिनों की तरह उससे मिटटी निकाली जा रही है,किसान बताते हैं की साल दर साल से इस हालात को देख कर अब आंखे पथरा गयी हैं,फिर भी व्याकुल क्षुधा शांत रहने भी तो नहीं देती,यह जानते हुए भी की पैदावार नहीं होगी,लेकिन फिर भी घर का रखा अनाज खेतों में डाल दिया करते हैं,नतीजा आगे कुआं और पीछे खायी वाली हो जाती है,जहा एक तरफ बारिश नहीं होने से फसल मारी जाती है,वहीं दूसरी ओर घर का रखा अनाज भी हाथ से निकल जाता है,चाहे वो छोटे मंझले किसान हों या बड़े कास्तकार,मौसम की बेरुखी देख सभी के माथे पर कसक भरी चिंता की लकीर साफ़ देखी जा सकती है,सभी एक स्वर से उपरवाले पर ही गढ़वा की खेती को निर्भर बताते हैं।
वादों से दूर हैं इरादे: – हर खेत को पानी मिले,बंजर हो चुके उपजाऊ खेतों में फ़सल रूपी हरियाली नज़र आवे इस दिशा में दशकों से वादे किए जा रहे हैं लेकिन उनके वादों से दूर है उनके इरादे तभी तो पलायन नियति बनी हुई है।
खेती के बिसात पर हर साल सतरंज कि बाजी खेल कर पीट जाने वाले गढ़वा के किसान एक बार फिर मोहरा बन बाजी खेलना शुरू कर दिए हैं,अब देखना यह होगा कि इस बार वो बाज़ी जीतते हैं या एक बार फिर उनके पाले में हार आती है..?

