मुझे नहीं लगता की इन दो जिलों उपयोगिता भी है.?


आशुतोष रंजन
रांची

बड़ा अजीब संयोग है की जब से इस कार्यक्रम की शुरुआत हुई है तब से मैं बीमार भी हूं,लगातार राज्य की राजधानी में गंभीरावस्था में इलाजरत हूं,लेकिन एक पत्रकार होने के नाते इस कार्यक्रम को ले कर यह दो बातें लिखने की चाहत मेरे मन में उस वक्त भी बलवती हो रही है जब मैं बेड पर हूं,हो सकता है इस ख़बर को पढ़ कर वो लोग मेरी मौत की दुआ मांगने में और तेज़ी लाएं क्योंकि जहां तक मालूम है वो ऐसा कर भी रहे हैं,खैर ज़िंदा रखना और मौत देना ऊपरवाले के हाथ में है,अब विषय पर आता हूं और आगे दोनो बिंदुओं पर आपको बताता हूं।

द्वार तो अधिकारी जाते हैं न.?:- मैं कार्यक्रम की मुखालफात नहीं कर रहा हूं,औरों की तरह मैं भी इसकी वकालत करते हुए सफ़लता की सहृदय शुभकामना देता हूं पर एक बात जैसा की मैंने बताया की इसके शुरुआत से मेरे जेहन में कौंध रहा है की पंचायतों में ग्रामीणों के द्वार तक तो प्रशासनिक अधिकारी जाते हैं न,तो फ़िर इसका नाम हर बार बदलते हुए आख़िर में सरकार आपके द्वार क्यों.?,क्योंकि गाहे ब गाहे राजनेता भले राजनीति करने चले जाएं यह बताने चले जाएं की देखिए ऐसा कार्यक्रम हम ले कर आए हैं जिसके ज़रिए आपको पूरा लाभ मिलेगा,अब मिले या ना मिले वो अलग बात है,लेकिन ज्यादातर तो अधिकारी ही कार्यक्रम में पहुंचते और उनकी जरूरत को समझते हुए उन्हें लाभ पहुंचाते हैं,क्योंकि नेता कुछ रोज़ भले आवाम से वाक़िफ हो जाएं अधिकारी को प्रतिरोज़ रूबरू होना पड़ता है,इसलिए एक नेता से कहीं ज्यादा अधिकारी ही इस कार्यक्रम के प्रमुख कड़ी हैं,फिर भी अफ़सोस कार्यक्रम का नाम उनके नाम पर क्यों नहीं.?

मुझे नहीं लगता है की इन दो जिलों में उपयोगिता भी है:- आप इस सबहेडिंग को पढ़ कर बेशक सोच रहे होंगें की अब यह कैसी बात हुई की दो जिलों में नहीं है उपयोगिता,यह मेरा सोचना है,अब सबका सोचना एक जैसा कैसे हो सकता है,तो आपको बताऊं की जहां तक मुझे मालूम है राज्य के दो जिले गढ़वा और पलामू में संयोग से दो ऐसे उपायुक्त पदस्थापित हैं जिन्हें गरीबों,मजलूमों और असहायों के दर्द का दिली शिद्दत से अहसास है,वो जानते हैं की गरीबी और लाचारी क्या होती है,तभी तो सरकार द्वारा कार्यक्रम का अब जा कर आगाज़ किया गया है लेकिन आपको गढ़वा उपायुक्त रमेश घोलप और पलामू उपायुक्त ए डोड्डे की दरियादिली और सच में एक अधिकारी की जिम्मेवारी का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन कैसे किया जाता है तो आप किसी रोज़ इन दो जिला मुख्यालयों में अवस्थित इनके कार्यालय का रुख कर सकते हैं,जहां आपको हर रोज़ सुदूर ग्रामीण इलाकों के कई दर्जन लोग उनके कार्यालय में मिल जायेंगें,क्योंकि इनके द्वारा बजाप्ते जनता दरबार का आयोजन किया जाता है,और एक बात गढ़वा के इस उपायुक्त से पहले भी आपका उक्त कार्यालय जाना होता होगा तो उस वक्त भी गाहे ब गाहे आयोजित होने वाले जनता दरबार दिखता होगा,आप याद कीजिए उस वक्त दरबार में आए ग्रामीणों को बारामदे या उससे बाहर धूप या पेड़ों के छांव में बैठ अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था,पर उपायुक्त रमेश घोलप द्वारा ही उन्हें सच में एक समान अधिकार दिया गया,आज जितने भी ग्रामीण आते हैं उन्हें बाइज्जत उपायुक्त कार्यालय से सटे वातानुकूलित सभागार में बैठाया जाता है,उन्हें नाश्ता कराया और पानी पिलाया जाता है ताकि वो इतनी दूर से आने के बाद कुछ पल राहत ले लें क्योंकि उन्हें अपनी बात जो कहनी है,फिर उपायुक्त बाक़ी सारा काम छोड़ उनके पास पहुंचते हैं,जहां ग्रामीण नहीं ख़ुद उपायुक्त उनका अभिवादन करते हैं,फिर बारी बारी से उनसे उनकी समस्या सुनते और संबंधित अधिकारियों को एक निश्चित अवधि में उसके निदान का त्वरित निर्देश देते हैं,उपायुक्त दरबार में आए किसी भी ग्रामीणों से हाथ जोड़ कर अपनी बात कहने को रोकते हैं,यह तो हुई कार्यालय की बात उपायुक्त द्वारा सुदूर ग्रामीण इलाकों में पहुंच कर भी जहां एक ओर कार्यालय जैसा जनता दरबार लगाया जा रहा है तो वहीं स्थल निरीक्षण करते हुए ज़रूरी योजनाएं कार्यान्वित भी कराई जा रही हैं,एक ज़रूरी बात तो कहना ही भूल रहे थे जो दोनो उपायुक्त की उत्कृष्ट कार्यशैली को दर्शाता है वो यह की जनता दरबार से इतर जब वो अपने कार्यालय में बैठे होते हैं और उन्हें उनके अर्दली द्वारा सूचना दी जाती है की बाहर एक दिव्यांग व्यक्ति या कोई बच्चा मिलने आया है तो उससे मिलने फ़ौरन कार्यालय के बाहर आते हैं और उसके पास बैठ उसकी समस्या को सुनते हुए त्वरित उसका निष्पादन करते हैं,हमने तो भाई यही सब देख कर कहा की मुझे नहीं लगता की इन दो जिलों में इस विशेष कार्यक्रम की कोई उपयोगिता भी है,अब आपका कुछ अलग सोचना लाज़िमी है।