अब बुला ले मुझे वो बंजारे


आशुतोष रंजन
गढ़वा

आम जनजीवन हो या कोई विशेष क्षेत्र हमें अक्सर कहा जाता है की कुछ कहने से पहले सोचना ज़रूर चाहिए,लेकिन बहुत कम लोग ही होते हैं जो उस पर अमल कर पाते हैं,आलम होता है की उन्हें जो बोलना था उसे तो वो बोल नहीं पाए और वो बोल दिए जो उन्हें कतई नहीं बोलना था,पर तीर कमान से और बात ज़बान से निकल कर वापस तो आती नहीं,सो उसे जो करामात करना होता है सो वो कर ही जाता है,लेकिन उसके बाद गीत की पंक्तियां बेशक याद आती हैं,वो कौन पंक्तियां है आइए आपको बताते हैं।

जो तुमको हो पसंद,वही बात कहेंगे: – सिनेमाई गीत को आज हम आप भले गलत ठहरा रहे हों क्योंकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता की आधुनिकता के इस दौर में सिनेमाई गीत कुछ दूषित हुए हैं,लेकिन इसके बावजूद भी कई ऐसे गीत भी गीतकारों द्वारा लिखे गए हैं जो आज भी कालजयी और कर्नप्रिय हैं,तभी तो आम जनजीवन के साथ साथ सामाजिक और राजनीति जैसे क्षेत्रों में भी गाहे ब गाहे जहां एक तरफ़ पंक्तियां दुहरायी जाती हैं तो वहीं दूसरी ओर इन पंक्तियों के साथ कोई उदाहरण देता है तो कोई किसी की नाराज़गी दूर करने को ले कर उस तलक अपनी बात पहुंचाने को ले कर इसका सहारा लेता है,तभी तो आज जब ख़ुद के ज़ुबान से जहां एक ओर ऐसे शब्द निकल गए हैं जो नहीं निकलने थे,साथ ही मन के फ़ैसले से आए फासले यानी दूरी को एक बार फ़िर से क़रीब लाने के लिए उनके द्वारा गीत की पंक्ति का सहारा लिया जा रहा है,और कहा जा रहा है की अब निकलेगा नहीं मेरे ज़ुबान से वो अल्फाज़,जो तेरे दिल पर आघात करेंगें,अब तो जो तुमको हो पसंद,वही बात कहेंगे।

बुला ले मुझे वो बंजारे: – चहुंओर है उजाला फिर भी आंखों को दिखे अंधियारे,तेरी बंजारन रास्ता देखे,अब बुला ले मुझे वो बंजारे”,यह केवल एक साधारण गीत ही नहीं बल्कि उदासी के मझधार में फंस चुकी उस बंजारन की भांति पंक्तियां दुहराते हुए बंजारे के बुलावे का आस जोह रही है,की शायद विरह का यह गीत उस तक पहुंचे और वो मेरी खता को माफ़ करते हुए मुझे एक बार फिर से अपने पास बुला ले।