श्मशान में मेघा की हुंकार : बहन को दिया अग्निदान, रूढ़ियों को दी अग्निपरीक्षा

श्मशान में मेघा की हुंकार : बहन को दिया अग्निदान, रूढ़ियों को दी अग्निपरीक्षा

गढ़वा की बेटी ने परंपरा की बेड़ियां तोड़ दीं, समाज के ठेकेदार मौन



दिवंगत आशुतोष रंजन

प्रियरंजन सिन्हा
बिंदास न्यूज, गढ़वा


गढ़वा, झारखंड का एक पारंपरिक जिला, जहां गांव की संस्कृति आज भी पूरी शिद्दत से सांस लेती है। जहां परंपरा तोड़ना मानो पाप हो और परंपरा निभाना धर्म। लेकिन इसी परंपरा की जड़ता को चीरते हुए गढ़वा की एक बेटी ने वह कर दिखाया जो समाज में साहस, प्रेम और अधिकार की पराकाष्ठा बन गया।

मातम के बीच क्रांति की चिंगारी: 28 जुलाई 2025 की शाम, गढ़वा की हेमंत देवी अपनी बड़ी बेटी मेघा के साथ बाजार गई थीं। लौटने पर घर का एक कमरा अंदर से बंद मिला। आवाज देने पर कोई उत्तर नहीं मिला। दरवाजा तोड़ा गया, और सामने दिखा वह मंजर जिसने सब कुछ बदल दिया — छोटी बेटी चंचला का शव, जो अपने ही दुपट्टे के सहारे लटका हुआ था।

पुलिस आई, शव पोस्टमार्टम के लिए गया और फिर लौटा। लेकिन इस दुखद हादसे से भी बड़ा दुख इस परिवार के लिए तब सामने आया जब उनके गोतिया — जो सौ की संख्या में हैं — अंतिम संस्कार में शामिल होने से पीछे हट गए। परिवार पहले से ही सामाजिक बहिष्कार झेल रहा था।

चार लोगों की मानवता, एक बहन का संकल्प: ऐसे समय में आगे आए चार लोग — मोहन सिंह, राकेश, बिंदेश्वर व मृतका की बहन। उन्हीं के कंधे पर चंचला की अर्थी उठी।

जब दानरो नदी के मुक्ति धाम में चिता सजी, तो पुरोहित ने परंपरा के अनुसार पुरुष सदस्यों से मुखाग्नि देने की अपील की। लेकिन मेघा ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया। वह आगे बढ़ी, हाथ में अग्निशलाका थामी और बहन की पांच बार परिक्रमा कर मुखाग्नि दी।

“ऐसा दृश्य जीवन में पहली बार देखा”: सौ वर्षीय पुरोहित: श्मशान में उपस्थित सौ वर्ष पुराने पुरोहित ने कहा, “हजार से अधिक अंतिम संस्कार कराए हैं, लेकिन ऐसा दृश्य पहली बार देखा है। दिल दहल गया।”

फिर उन्होंने वही सवाल उठाया जो समाज को अब खुद से पूछना चाहिए — “बिटिया हर सुख-दुख में साथ है, तो फिर वह श्मशान में क्यों नहीं? मुखाग्नि क्यों नहीं?”

यह सिर्फ एक अंत्येष्टि नहीं थी — यह घोषणा थी: मेघा ने एक मृत देह को नहीं, एक पुरानी सोच को अग्नि दी। उसने यह दिखाया कि बेटी भी अग्निदान दे सकती है, बेटी भी कंधा दे सकती है, बेटी भी रीति निभा सकती है — और शायद बेटों से बेहतर निभा सकती है।

निष्कर्ष : एक बिटिया ने जो कहा, वह समाज के लिए चुनौती है: गढ़वा की इस बेटी ने यह साबित कर दिया कि परंपराएं बदल सकती हैं, जब इरादे मजबूत हों। यह खबर केवल एक घटना नहीं — यह उदाहरण है। उन सभी बेटियों के लिए, जो अब चुप नहीं रहेंगी। जो सिर्फ जन्म नहीं लेंगी, बल्कि इतिहास भी लिखेंगी।

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Ashutosh Ranjan

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