दावों में तो नहीं क्या नेताओं के अगले वादों में भी है यह स्कूल…?
आशुतोष रंजन
गढ़वा
सबको शिक्षा सबको मान,पढ़ कर बच्चे बने महान,कोई भी बच्चा छूटे ना,क्रम शिक्षा का टूटे ना,ऐसे कई नारों को सरकार और उनके नुमाइंदे अपने ज़ुबान से दुहराते नहीं थकते,पर शैक्षणिक हालात की ज़मीनी सच्चाई देखनी हो तो ज़रा गढ़वा का रुख़ कर लीजिए जहां की स्थिति देख आप खुद बोल पड़ेंगे की हे भगवान क्या ऐसा भी होता है स्कूल..?
ग़रीबों का कोई नहीं है अपना,टूट रहा अबोधों का सपना : – देह पर ड्रेस की जगह फटे कपड़े,भवन की जगह पेड़ का आसरा और बेंच की जगह साथ में लाया गया बोड़ा,जो कहने को अपने आप में भदुआ गांव के प्रेम नगर टोला का एक सरकारी स्कूल है,लेकिन विकासीय ढिंढोरा पीटने वाली झारखंड सरकार और उनके नुमाइंदों का शिक्षा की ओर कितना ध्यान है उसकी यह एक मात्र बानगी है,इसे हम आप कागज़ पर तो स्कूल कह सकते हैं लेकिन क्या हालात देखने के बाद सरजमीन पर भी कहेंगे,भला कैसे कहेंगे,जिस तरह हमारे आपके बच्चे हैं जो बढ़िया ड्रेस के साथ अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं,साथ में लंच बॉक्स ले कर जाते हैं,नज़दीक स्कूल होने पर कोई बच्चा पैदल जाता है तो दूर होने पर बस से जाया करता है,ठीक उसी तरह ये भी बच्चे हैं इनका भी बचपना है,इनके दिल में भी अरमान है,ये भी कभी शहर में आने पर यहां के स्कूली बच्चों को देखते होंगें,ज़रा अंदाज़ा लगाइए उस वक्त इनके मन में कैसी हुक उठती होगी,कैसी पीड़ा होती होगी उसे शब्दों में बयां करना मेरे लिए तो मुश्किल है,क्या ये ऐसा नहीं सोचते होंगे कि हम ग़रीब हैं और ना तो ग़रीब का कोई होता है ना ही कोई सुनता है,अगर ग़रीब की बातों को सुना जाता तो आज हम भी गांव में ही सही एक अच्छे भवन वाले स्कूल में ड्रेस पहन कर जाते और बेंच डेस्क पर बैठ कर पढ़ाई करते हुए कुछ बनने और कुछ कर गुजरने का सपना देखते,लेकिन सत्ताधीशों द्वारा ख़ुद के ख़्वाब पूरा करने की राह में इन अबोधों के सपने टूट रहे हैं |
दावों में तो नहीं क्या वादों में भी शामिल है यह स्कूल : – झारखंड का गढ़वा जिसे राज्य के हुक्मरान के साथ साथ यहां से निर्वाचित होने वाले सभी और अब एक बार फ़िर से यहां से विधायक बनने को ले कर चुनावी मैदान उतर चुके किसी प्रत्याशियों द्वारा क्षेत्र को विकसित तो किसी के द्वारा अविकसित बताया जाता है लेकिन इतना विकास करने के बाद आख़िर यह स्कूल उनके नज़रों से क्यों ओझल रहा यह वो यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब देने में शायद वो निरुत्तर ही रहेंगे,पेड़ के नीचे ज़मीन पर बैठ कर किसी तरह पढ़ने की ललक को पूरा कर रहे बच्चों की कसक को तो आपको बताया ही अब आइए उनके उन ग़रीब मुफलिस माता पिता की बातों को भी पढ़ लीजिए जिनकी दिली चाहत थी कि लाख ग़रीबी के बाद भी मेरे बच्चे पढ़ाई पूरी कर सकें,लेकिन जिनकी पढ़ाई की बुनियाद ही इतनी कमज़ोर है तो उसके ऊपर शिक्षा की बुलंद इमारत खड़ी होने की कल्पना करना बेमानी नहीं बल्कि पूरी तरह बेइमानी है,पढ़ाई के ऐसे दुर्दिन हालात के विषयक उनके साथ साथ बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षक कहते हैं कि हमारे द्वारा स्थानीय जनप्रतिनिधि के साथ साथ सबके पास करुण गुहार लगाया गया लेकिन बदहाली को बदलने का आश्वासन ज़रूर मिला पर हालात बदला नहीं,कहीं कोई राह नहीं दिखने की सूरत में विवश हो कर मन की असहनीय पीड़ा के साथ पेड़ के नीचे पढ़ाने को विवश हूं |
एक बार फ़िर से चुनाव आ गया है,प्रत्याशियों द्वारा नामांकन दाख़िल करने के साथ साथ सभा में किए गए कार्यों को दावे के रूप में तो अगर वक्त आया तो करने वाले कामों को वादे के रूप में कहा जाने लगा है लेकिन सवाल उठता है कि विकास के किए जा रहे वादों में तो यह स्कूल नहीं होगा,क्या आगे के वादों में भी समाहित है..?