“मिट्टी का ऋण कभी खत्म नहीं होता और शिबू सोरेन उसी मिट्टी की आवाज थे।”
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दिवंगत आशुतोष रंजन
प्रियरंजन सिन्हा
बिंदास न्यूज, गढ़वा
दिशोम गुरु शिबू सोरेन जी का निधन एक युग, एक विचार, एक आंदोलन, एक पीढ़ी के साहस, संघर्ष और चेतना का अवसान है। उनका निधन झारखंड की आत्मा का एक टुकड़ा खो जाने जैसा है। वो टुकड़ा जो सदियों से उपेक्षा, शोषण और हक की लड़ाई लड़ता आया था।
शिबू सोरेन महज एक नेता नहीं थे। वे झारखंड की मिट्टी से उपजे वह बीज थे; जिसने जल, जंगल, जमीन की रक्षा में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। वे आदिवासी अस्मिता के सबसे सशक्त प्रहरी, पीड़ितों की सबसे मुखर आवाज और मजदूरों के लिए अनथक लड़ने वाले सेनानी थे।
शिबू सोरेन जी का जीवन झारखंड की ही तरह तपस्वी और संघर्षशील रहा। शिबू सोरेन ने बहुत ही कम उम्र में शोषण के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की। उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या जब स्थानीय महाजन ने की, तो यह घटना उनके जीवन का अहम मोड़ बन गई। उन्होंने तय किया कि वे समाज को जागरूक करेंगे, उन्हें उनके अधिकारों के लिए लड़ना सिखाएंगे।
1970 के दशक में शिबू सोरेन जी ने आदिवासी किसानों को महाजनी शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए धनकटनी आंदोलन शुरू किया। तभी आदिवासी समाज के लोगों को उनमें अपना नेता दिखाई दिया, जो उन्हें सूदखोरों से आजादी दिला सकते थे। इसी आदोलन के दौरान शिबू सोरेन को दिशोम गुरु की उपाधि मिली।
झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना एक जनांदोलन की उपज थी। शिबू सोरेन ने यह स्पष्ट कर दिया था कि यह पार्टी नहीं, एक परिवर्तन की चेतना है। उन्होंने कहा था कि झारखंड कोई भूगोल नहीं, यह हमारे जीवन का नाम है।
उन्होंने हर मंच से दिल्ली की सत्ता को चुनौती दी कि जब तक झारखंड को एक अलग राज्य का दर्जा नहीं मिलेगा, तब तक आंदोलन जारी रहेगा। उनके नेतृत्व में बड़ी संख्या में नौजवान, आदिवासी, किसान, छात्र-छात्राएं इस आंदोलन से जुड़ते गए।
साल 2000 में जब झारखंड अलग राज्य बना, तो यह दिशोम गुरु की तपस्या का फल था। उन्होंने यह साबित कर दिया कि आवाज अगर सच्ची हो, तो वह पर्वत भी हिला सकती है।
मुख्यमंत्री के रूप में जब बाबा ने राज्य की बागडोर संभाली; तब ग्रामीण विकास, वनाधिकार कानून का क्रियान्वयन, लोक-कल्याणकारी योजनाएं और गरीबों की सीधे भागीदारी उनकी प्राथमिकता में शामिल रहा। उन्होंने कई योजनाएं ऐसी बनाईं जो राज्य के पिछड़े जिलों को मूलभूत सुविधाएं दिला सकें। वे मानते थे कि विकास का अर्थ केवल शहरों को सजाना नहीं, बल्कि गांवों को अधिकार और आत्मनिर्भरता देना है। वे ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो हर पंचायत में जाकर जनता से सीधे संवाद करना पसंद करते थे।
शिबू सोरेन जी के पास न कोई दिखावा था, न कोई छल। सादा जीवन, खादी का कुर्ता और गांव की भाषा में बोलने वाला नेता। वे झारखंड के आम आदमी के प्रतीक बन चुके थे। उनके लिए सत्ता कभी लक्ष्य नहीं रही, बल्कि केवल जनहित के लिए एक साधन थी।
आज दिशोम गुरु हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका संघर्ष, दर्शन और विचार हम सबके भीतर जीवित हैं। वे केवल एक पीढ़ी के नेता नहीं थे, वे आने वाली पीढ़ियों की चेतना बन गए हैं। झारखंड की हर पहाड़ी, हर पगडंडी में उनकी स्मृतियां बसी हुई हैं। शिबू सोरेन जी का जीवन हमें यह सिखाता है कि परिवर्तन सिर्फ नारों से नहीं, समर्पण और संघर्ष से आता है। उनके अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए, जल-जंगल-जमीन और पीड़ित-शोषित-वंचितों की रक्षा के लिए हम सदैव प्रतिबद्ध रहेंगे।
दिशोम गुरुजी शिबू सोरेन अमर रहें।








