आख़िर माता क्यों हो गई कुमाता..?


आशुतोष रंजन
गढ़वा

वह बात गुज़रे जमाने की हो गयी जब विपरीत परिस्थिति के बाद भी मां अपने कलेजे के टुकड़े यानी अपने बच्चे को खुद से जुदा नहीं करती थी,लेकिन वर्तमान गुज़रते वक्त में माता कुमाता होने लगी,आज बड़े शहरों और महानगरों में ही नहीं बल्कि गांव देहात और छोटे शहरों भी अजन्मे बच्चे को गर्भ में मारने के साथ साथ जन्म ले चुके बच्चे को किसी और के द्वारा नहीं बल्कि माँ के द्वारा ही मार दिया जा रहा है,तो कहीं जीवित हालत में ही मरने के लिए बाहर फेंक दिया जा रहा है,ताज़ा वाक्या कहां सामने आया जानने के लिए इस ख़ास रिपोर्ट को पढ़िए।

भला उसे कैसे कहूं मां : – मैं बांझ ना कहलाऊं,मुझे ससुराल में लोगों से उलाहना ना सुनना पड़े इस ख़ातिर महिलाएं खुद का गोद भरे यानी अपना भी एक बच्चा हो इसलिए वो पास के साथ साथ दूर स्थित देवी देवताओं के दर पर माथा टेकती हैं,उसके द्वारा भी कुछ ऐसा ही किया गया होगा तभी तो उसके गोद में एक बच्चा आया था,उसकी भी ममता जागी होगी लेकिन उसने तो उस ममता का गला घोंट दिया,उसने आज अपने उसी नवजात को हलाल कर दिया,यह वाक़्या गढ़वा जिला मुख्यालय में घटित हुई,जिसे जो भी देखा उसकी आंखें बरस पड़ीं,आपको बताएं की सुबह सुबह टहलने निकले लोगों ने नामधारी महाविद्यालय पास स्थित झाड़ी में एक नवजात को देखा,उन्हें लगा की शायद वो जीवित होगा लेकिन जिस इरादे से उसे वहां फेंका गया था उसका हाल वही हुआ यानी नवजात की जान जा चुकी थी,उधर इस बात की जानकारी जैसे ही और लोगों को हुई,उक्त स्थल पर भीड़ जमा हो गई,साथ ही ग्रामीणों द्वारा तत्काल इसकी सूचना शहर थाना को दी गई,सूचना के आलोक में थाना प्रभारी द्वारा पुलिस बल को भेज नवजात के शव को सदर अस्पताल लाया गया।

जीवन देने वाली मां क्यों दी मौत : – चिलचिलाती धूप में बच्चे को गोद में ले कर बाहर निकलने वाली मां उसे आंचल से ढंकती है ताकि उसे धूप ना लगे,बरसात में भींगने से बचाती है,तो उधर जाड़े की रात में ख़ुद ठंढ से ठिठुरती जाती है पर अपने बच्चे को ठंढ का अहसास तक नहीं होने देती,उधर बच्चा भी मां के गोद और आंचल के छांव में ख़ुद को पूरी तरह महफूज़ समझता है,ठीक उसी तरह यह नवजात भी अपने आप को सुरक्षित अहसास कर रहा होगा,पर उसे क्या इलम था की जीवन देने वाली मां ही कुछ ही पलों में उसे मौत देने वाली है,इस ठिठुरते ठंढ में जब उसे झाड़ियों में फेंक कर मां लौट रही होगी तो क्या वो पलट कर देखी होगी,क्या उसके पांव ठिठके होंगें,वो अपने हाथो को भले समेट ली होगी पर झाड़ियों में पड़े उस नवजात द्वारा यह सोचते हुए ज़रूर हाथ बढ़ाने की कोशिश की गई होगी की मेरी मां मेरा हाथ पकड़ लेगी,लेकिन उस अबोध को क्या पता कि उसकी माता अब कुमाता हो गयी है,तभी तो बच्चों की हर बला खुद पर ले लेने को आमादा रहने वाली माँ ने ही उसे मौत देने के लिए झाड़ियों में फेंक दिया।

पूत तो हर युग में कपूत होते रहे हैं लेकिन वर्तमान गुज़रते युग में माता का कुमाता बन अजन्मे के साथ साथ जन्मे नवजात की जान लेना निश्चित रूप से एक बड़ा और गंभीर सवाल है।