पूर्व मंत्री एवं सांसद स्मृति शेष चंद्रशेखर दुबे उर्फ ददई दुबे : कुछ अनछुए प्रसंग

पूर्व मंत्री एवं सांसद स्मृति शेष चंद्रशेखर दुबे उर्फ ददई दुबे : कुछ अनछुए प्रसंग


दिवंगत आशुतोष रंजन

प्रियरंजन सिन्हा
बिंदास न्यूज, गढ़वा


वर्ष 1966- 67 मैं अविभाजित पलामू जिले में विश्व विख्यात अकाल पड़ा था। हजारों पशुओं के साथ-साथ सभी इलाकों में सैकड़ो मनुष्यों की अनाज के अभाव में कुपोषण के कारण मौत हो गई थी। उस समय सरकार ने फूड फॉर वर्क योजना चला कर मजदूरों को पालने का कार्यक्रम बनाया था। बावजूद इसके हर एक घर की खास कर मजदूरों के घर की हालत काफी खराब थी। ऐसे में ददई दुबे के गृह ग्राम चोका के पड़ोस में अवस्थित पतिला गांव एवं आजू-बाजू के गांवों में मजदूरों की हालत काफी खराब थी। जबकि इस वक्त एक बांध के जीर्णोद्धार (उल्टैन) का काम चल रहा था। इसी बीच ठेकेदारी के दौरान मजदूरों के हित पर चोट आने की स्थिति बन गई। मजदूरों ने इसकी शिकायत प्रशासन से कर दी। कुल मिलाकर काफी तनाव की स्थिति बन गई। इधर चूल्हा ठंडा होने की नौबत आ गई थी। बात बढ़ जाती है तो निपटारा होने में काफी समय लग जाएगा। ऐसी स्थिति में भूखे तड़पते परिजनों को देखना बहुत कष्ट कर स्थिति होती। बीच बचाव का रास्ता निकालने में इलाके के तमाम वरिष्ठ लोग हार चुके थे। ऐसे में मजदूरों की शिकायत पर पदाधिकारी एवं पुलिस की टीम अगले दिन जांच में आने वाली थी। बैठकर तमाम वरिष्ठ लोग कैसे किया जाए इसी की चर्चा कर रहे थे। उसी जगह नवयुवक ददई दुबे भी बैठे हुए थे। जब तमाम लोग अपने को असमर्थ घोषित कर दिए तो इन्होंने कहा कि मैं इस मामले को सुलझा दूंगा। अंधे को क्या चाहिए दो आंखें। मौके पर मौजूद लोगों ने पहले तो इसे मजाक में उड़ा दिया। लेकिन इन्होंने इस बात को फिर से दोहराया। क्योंकि उनके दिल में यह बात खटक रही थी। अगर कोई बीच का रास्ता नहीं निकला तो मजदूरों के बच्चे खाए बिना मर जाएंगे। बीच बचाव का कोई रास्ता निकलता नहीं देख मौजूद लोगों ने कहा कि ठीक है आप प्रयास कीजिए। दुबे जी ने कहा यदि मैंने ऐसा कर दिया तो आप लोग क्या करेंगे। लोगों ने लगे हाथ कहा कि हम लोग आपको इस पंचायत का मुखिया बना देंगे। पंचायत चुनाव शीघ्र ही होने वाला था। लोगों ने राधा कृष्ण मंदिर सेमौरा में घुसकर इस बात की घोषणा की कि यदि आप इस विवाद को निपटा देते हैं तो हम लोग मंदिर में घुसकर बोल रहे हैं कि आपको मुखिया बना देंगे। बस क्या था दुबे जी मजदूरों की बस्ती में पहुंच गए। पूरे दिन एवं पूरे रात उन्हीं के बीच कई दौर की बैठक करके बात को रास्ते पर ले लाए। लेकिन इसकी किसी को कानों कान खबर नहीं होने दी। जहां काम हो रहा था वहां अधिकारियों के साथ पुलिस अधिकारी भी हथकड़ी के साथ पहुंचे। जिसे देखकर लोगों के होश उड़ गए। तय हो गया कि कुछ लोगों को अब जेल जाना पड़ेगा। निर्मित हो रहे आहर के समीप जांच शुरू हुई। लेकिन तमाम मजदूर एक सुई में पार हो गए। सब ने विवाद समाप्त होने वाला बयान दिया। मामला मजदूरी को लेकर था। जितनी मजदूरी मस्टर रौल में दिखाई गई थी उतने अनाज का मजदूरों के बीच वितरण किया गया। बस क्या था जांच दल को बैरंग वापस लौटना पड़ा। मजदूरों के साथ-साथ तमाम वरिष्ठ लोगों ने बांध पर ही यह नारा बुलंद किया कि हमारा मुखिया कैसा हो ददई दुबे जैसा हो, ददई मुखिया जिंदाबाद। पंचायत चुनाव की घोषणा हुई। पंचायत के जितने वरिष्ठ एवं कद्दावर लोग थे। सभी मुखिया के प्रत्याशी थे। उसी में एक युवा प्रत्याशी चंद्रशेखर दुबे उर्फ ददई दुबे भी थे। जिनके पास चुनाव लड़ने के तमाम संसाधन भी उपलब्ध नहीं थे। बावजूद इसके इनका प्रचार आम जनता ने किया। मजदूरों ने किया और भारी बहुमत से मुखिया के चुनाव में दुबे जी विजयी हुए। यहीं से उन्होंने मजदूरों के लिए जीना शुरु कर दिया। मजदूर हित में इन्हें कई गंभीर लड़ाइयां लड़नी पड़ीं। इस बीच इन्हें काफी बदनाम किया गया। बावजूद इसके इन्होंने मजदूरों के लिए लड़ना और उनके हितों की रक्षा करना नहीं छोड़ा। इससे पहले का एक प्रसंग है जिसकी जानकारी चंद लोगों को शायद हो। लेकिन जनसाधारण को इसकी जानकारी नहीं है कि मुखिया का चुनाव लड़ने से पहले चंद्रशेखर दुबे मध्य प्रदेश सरकार में सरकारी नौकरी प्राप्त कर चुके थे। वे मध्य प्रदेश पुलिस में बहाल हो चुके थे। जिन्हें कद काठी एवं योग्यता के आधार पर बतौर एसएफ का जवान चुन लिया गया। साथ ही अंबिकापुर से अन्यत्र भेज दिया गया। लेकिन जिसके दिल में गरीबों का हित हिलोरे मार रहा हो वह अपने और अपने परिवार की भलाई के लिए नौकरी कैसे कर सकते थे। वह सरकारी नौकरी छोड़कर वापस आ गए एवं पूर्व की तरह मजदूरों व गरीबों के लिए जीना शुरु कर दिया। इस बीच बतौर मुखिया राजनीति की पहले पायदान पर जनसेवा शुरू किया। इसी बीच 1977 का विधानसभा चुनाव आ गया। इनके साथ के गरीबों व मजदूरों ने इनसे विधानसभा चुनाव लड़ने की गुजारिश की। कहा कि हमारा भला दूसरा कोई नहीं कर रहा है और नहीं करेगा। आप हमारे नेता हैं। आप इस पद पर लिए चुनाव लड़िए।बस फिर क्या था इन्होंने तीर धनुष छाप से निर्दलीय विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा दिया। जिसमें स्वाभाविक था कि इन्हें बाहुबली विनोद सिंह से पराजित होना पड़ा। पुन: 1980 में मध्यावधि चुनाव हुआ। इस बार भी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में शेर छाप से चुनाव लड़ा। इस बार भी बाहुबली विधायक विनोद सिंह से ही टक्कर थी। बावजूद इसके इन्होंने अच्छा खासा वोट प्राप्त किया। इस बार भी चुनाव हार गए। लेकिन इन्हीं प्राप्त वोटो के आधार पर वर्ष 1985 में कांग्रेस का टिकट मिला और बाहुबली विधायक विनोद सिंह को हराकर यह पहली बार बिहार विधानसभा के लिए चुन लिए गए। इससे पहले 1977 का चुनाव हारने के बाद इनका पदार्पण सेंट्रल कोल फील्ड के मजदूर इलाके में हुआ। जहां मजदूरों ने इन्हें अपने यूनियन का नेता चुन लिया। यहां भी पहले से नेतृत्व कर रहे नेता से इन्हें लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। लेकिन विजय इन्हीं को मिली। अंतिम सांस तक यह मजदूर हित की लड़ाई लड़ते रहे। आरसीएमएस की छोटी इकाई से इंटक के राष्ट्रीय अध्यक्ष तक चुने गए। मजदूर हित के लिए सीसीएल एवं सेल प्रबंधन से लड़कर मजदूरों का हक दिलाते रहे। यह विधायक गरीब असहाय एवं मेहनतकश किसान मजदूरों के दिलों पर राज करते थे। विशेष विस्तार में नहीं जाकर कुछ प्रसंग की चर्चा करें। एक बार अपने समर्थकों के साथ उन्हीं के काम से पलामू डीसी के पास पहुंचे। डीसी ने अपने स्टाफ से कहा कि विधायक जी को मेरे पास बुलाओ एवं अन्य सभी लोगों को स्वागत कक्ष में बैठा कर चाय पानी पिलाओ। इतना सुनना था की विधायक ददई दुबे आग बबूला हो गए। उन्होंने कहा कि मैं डीसी से कोई कमीशन लेने नहीं आया हूं कि अकेले में बात करूंगा। मैं सभी लोगों के साथ बैठकर बात करूंगा। डीसी किसी जल्दी बाजी में इसके लिए तैयार नहीं थीं। इधर दुबे जी भी अकेले बात करने के लिए तैयार नहीं हुए। अंत में इन्होंने कहा कि मैं अपने सभी लोगों के साथ इसी चेंबर में बैठकर बात करूंगा लेकिन दूसरे डीसी के साथ। उन्होंने ऐसा किया भी तीसरे चौथे दिन ही दूसरे डीसी का पदस्थापन हुआ एवं उन्हीं समर्थकों के साथ दुबे जी ने चैंबर में बैठकर बात किया। ऐसा ही एक प्रसंग पलामू एसपी के साथ भी हुआ। उस दिन भी विधायक अकेले बात करने के लिए तैयार नहीं हुए। अंत में प्रसंग ने अपने को फिर दोहराया और दूसरे एसपी का 24 घंटे के अंदर पदस्थापन कराकर उसके साथ समर्थकों के बीच बैठकर बात किया। एक बार सेल यूनियन के नेता भवनाथपुर से सेल के बड़े पदाधिकारी के साथ बोकारो लौट रहे थे। रात हो गई थी। इसी बीच विश्रामपुर क्षेत्र के एक स्थान पर एक मजदूर की बारात खड़ी थी। जो किसी बस से जाने का प्रयास कर रही थी। लेकिन कोई बस रुक नहीं रही थी। बारात वाले काफी चिंतित थे। इसी बीच ददई दुबे की गाड़ी पहुंचती है। उन्होंने गाड़ी रोक सभी अधिकारियों को पास ही में एक कच्चे कमरे में चल रहे चाय की दुकान में बैठाया और दूल्हा, उसके पिता, एक दो व्यक्ति और आवश्यक सामान के साथ उन लोगों को लेकर जंगली क्षेत्र में शादी के घर में पहुंचा दिया। उन लोगों से अनुरोध किया कि किसी को नहीं बताना कि हम लोग किसके साथ आए हैं। वरना देर हो जाएगी। लेकिन बात खुल गई। घर वाले अपने विधायक को देखकर गदगद हो गए। हाथ जोड़कर विनती की कि एक गिलास पानी पी लिया जाए। दुबे जी को रुकना पड़ा। दूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद दिया और नाश्ता पानी करके वहां से चले। इधर सेल के अधिकारियों का प्राण आधा हो रहा था कि अंधेरी रात में हम लोग कहां फंस गए। इस तरह की दर्जनों कहानी ददई दुबे की है। जिसमें उन्होंने गरीबों को रास्ते में से उठाकर अपनी गाड़ी से उनकी मंजिल तक पहुंचाया। इसी तरह कांडी इलाके में एक तिलक में उन्हें जाना था। रास्ते में देखा कि एक एंबेसडर गाड़ी गड्ढे में भरे कीचड़ में फांसी हुई है। पूछने पर पता चला कि वे लोग वही तिलक चढ़ाने जा रहे हैं जहां विधायक को जाना था। उन्होंने तमाम तिलक हारों को उठाया और अपनी गाड़ी से पहले अपने घर ले गए। उन्हें शरबत पिलाया नाश्ता कराया। उसके बाद जहां उन्हें तिलक चढ़ाना था वहां लेकर साथ में गए। उधर अपने लोगों से उनकी गाड़ी निकलवा कर मंगाई। इस तरह के इतने प्रसंग हैं जिसे लिपिबद्ध किया जाए तो वह एक पुस्तक हो जाएगा।

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Ashutosh Ranjan

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