मुफलिसी में अमीर पत्रकारिता की पहचान है आशुतोष का Bindash

व्यंग्य लेखक राजीव भारद्वाज
गढ़वा

“सुकून – ए – दिल के लिए कुछ तो एहतमाम करूं,जरा नजर जो मिले फिर उन्हे सलाम करूं,मुझे तो होश नही आप मशवरा दीजिए,कहां से छेड़ू फसाना कहां तमाम करूं।” जी हां आशुतोष के जन्म के समय पंडित जी ने कहा था “यह बच्चा मशहूर होने और करने तथा गैर मामूली ऊंचाइयों पर पहुंचने के लिए पैदा हुआ है, इसका अच्छे तरह से ध्यान रखना और दुनिया की नजरों से बचा कर रखना, अगर इसे बुरी नजरों से बचा लिया तो ये बुढ़ापे में भी खूबसूरत दिखेगा, और दुनिया को भी बताएगा की दुनिया कितनी खूबसूरत है। संयुक्त बिहार झारखंड के पलामू जिला वर्तमान में गढ़वा जिला के निवासी आशुतोष वास्तव में भोले भंडारी हैं। संविधान के चौथे स्तंभ के रूप में आशुतोष अपनी जिम्मेदारियों से जन जन में काफी लोकप्रिय हैं। हम आज तक उनके द्वारा पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं से रुबरू हुए, लेकिन आज हम उनके व्यक्तित्व को जानेंगे। कौन है आशुतोष,कैसा है आशुतोष ?

कायस्थ परिवार में जन्म लेने वाले आशुतोष के पिता प्रियरंजन सिन्हा जो चालीस वर्षों से अपनी कलम के जादू से अपने नाम के अनुरूप समाज में प्रिय रहे हैं। दैनिक आज, नवीन मेल, प्रभात खबर और हिंदुस्तान के बाद आज दैनिक भाष्कर के लिए नित्य लिखना उनकी कलम की ताकत को उजागर करता है। ” बापे पूत पारापत घोड़ा, कुछ नही तो थोड़ा थोड़ा ” लोकोक्ति को सच किया उनके पुत्र आशुतोष रंजन ने । आशुतोष आज अपने खुद के पोर्टल और यूट्यूब चैनल बिंदाश न्यूज़ के ज़रिए समाज के हालात को एक अलग अंदाज़ में सामने ला रहे हैं, लेकिन पिता की तरह इनके संघर्ष की कहानी भी कम नहीं है, आपको बताऊं की बिहार के बौलिया में जन्मे आशुतोष जिनके घर का नाम चंदन है उनके पिता नहीं चाहते थे की उनका बेटा भी इसी लाइन यानी पत्रकारिता में आए, क्योंकि पत्रकारिता उनकी नजर में धर्म था, पैसा कमाने और दलाली करने का संसाधन नही। भले ही नून रोटी और माड़ भात खाकर सो जाए लेकिन किसी के सामने हाथ फैलाना फितरत में शामिल नहीं था, इसलिए उन्होंने बेटे को सरकारी नौकरी में डालने के लिए प्रारंभिक बुनियाद सही डालना चाहते थे, परंतु कांडी प्रखंड के पिछड़े गांव अधौरा में रहने के कारण उनके द्वारा सबसे पहले अथक प्रयास करते हुए स्कूल विहीन गांव में स्कूल की शुरुआत कराई गई, तब आशुतोष की प्रारंभिक पढ़ाई उसी स्कूल से शुरू हुई, आज की आधुनिक नहीं बल्कि मिट्टी के दो कमरों में गांव के ही दो शिक्षित युवक राम रंजन और सत्यनारायण गुप्ता द्वारा बच्चों को पढ़ाना शुरू किया गया, बोड़ा पर बैठ कर पढ़ने वाले बच्चे किताबी ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान भी लेने लगे, लेकिन इतना पढ़ाई काफी नहीं था सो प्रियरंजन सिन्हा द्वारा आशुतोष को डाल्टनगंज पढ़ने के लिए भेजा गया और कोयल नदी किनारे अवस्थित सरस्वती शिशु मंदिर में नामांकन कराई गई, पढ़ाई शुरू हुई पर मां के दुलारे होने के कारण वो विचलित रहने लगें, मां की याद उन्हें कमज़ोर करता गया, नतीजा हुआ की वो दूसरे क्लास में पढ़ने के दरम्यान मई माह के भीषण गर्मी में चाचा घर से निकल रेलवे लाइन होते हुए स्टेशन पहुंचे और सुबह की गाड़ी पकड़ गांव जाने के लिए निकल पड़े, मोहम्मदगंज पहुंचने के बाद दादा और पिता के पहचान वाले होटल में सेवई खा कर कोयल नदी के गर्म बालू को पार करते हुए अपने गांव पहुंचे, तो इधर उस वक्त डाल्टनगंज में ही वकालत की परीक्षा दे उनके पिता और चाचा सहित सभी लोग परेशान और हलकान हो कर खोजना शुरू किए की आखिर आशुतोष कहां चला गया, इकलौते पुत्र होने के कारण हर क्षण चिंता ज़्यादा बढ़ती जा रही थी, मोबाइल का वक्त नहीं था सो आशुतोष के पिता रात गाड़ी से गांव के लिए यह सोचते हुए निकले की शायद वहां गया हो उनकी सोच सही साबित हुई क्योंकि वो तो गांव ही गए थे, तो इधर आशुतोष के गांव में भी परिवार के साथ साथ गांव वाले भी परेशान थे की पिता खोजबीन करते हुए परेशान हो रहे होंगें सो उनके चाचा राम रंजन शाम वाले ट्रेन से जाने वास्ते मोहम्मदगांज पहुंचे जहां ट्रेन आने पर उनकी मुलाकात अपने बड़े भाई यानी आशुतोष के पिता से हुई जिन्हें देख वो समझ गए की वो ढूंढते हुए यहां तक पहुंचे हुए हैं, उन्हें बताया गया की आशुतोष घर पहुंच गया है, परीक्षा देने के बाद उनके पिता जब घर पहुंचे तो निश्चित रूप से काफी चिंतित हुए की उनके द्वारा जिस बेटे को बेहतर पढ़ाई के लिए बाहर भेजा था सो आज भाग कर घर को लौट आया,फिर कुछ माह बाद एक बार फिर से प्रयास किया गया और आशुतोष को बुआ के यहां भेजा गया, जहां होम सिकनेश होने के बाद भी बुआ से मिल रहे असीम प्यार ने उन्हें कुछ साल तक रोके रखा, जहां वो पढ़ाई करने लगे,पर समय का पुराना चक्र एक बार फिर घुमा और जब इंजीनियर फूफा का तबादला अरगड्डा हो गया तो सबके साथ आशुतोष भी वहां आए, अभी यहां एक अलग स्कूल में नामांकन होता उससे पहले आशुतोष के पिता वहां पहुंचे, जिस रोज़ उनके पिता वहां से लौटने के लिए निकले तो आशुतोष भी घर से बाहर रोते हुए निकले की कुछ रोज़ साथ रहने के बाद उनके पिता वहां जा रहे हैं जहां जाने के लिए वो प्रतिक्षण सोचा करते हैं,उनके पिता तो गाड़ी पकड़ कर चल दिए लेकिन आशुतोष के जो कदम बाहर निकले थे वो वापस घर में नहीं लौटे क्योंकि दूसरी गाड़ी से आशुतोष भी चल दिए, यहां एक घटना भी घटित हुई,जब रामगढ़ बस स्टैंड में एक व्यक्ति द्वारा आशुतोष को यह कहते हुए अपने साथ ले जाया गया की वो उसे उसके घर पहुंचा देगा,लेकिन वो तो बच्चा चुराने वाला व्यक्ति था, वो जिस घर में आशुतोष को रखा उस घर के लोग आशुतोष को बुआ के घर देखे थे, सो उन लोगों ने वहां खबर किया,और फिर बुआ के छोटे बेटे ब्रजेश सिन्हा तत्काल वहां पहुंचे और आशुतोष को उस जगह से साथ ले गए जहां अगर वो और कुछ देर नहीं पहुंचते तो ना जाने आशुतोष कहां होते, आशुतोष के फूफा द्वारा गांव में सूचना दी गई की आशुतोष द्वारा ऐसा किया गया है आप यहां से बेटे को ले जाएं,तब आशुतोष के छोटे चाचा श्याम रंजन वहां पहुंचे और आशुतोष को साथ ले कर गांव आए, यहां बताऊं की दूसरी बार आशुतोष द्वारा ऐसा किए जाने यानी पढ़ाई से दूर भागने के कारण बेहद चिंतित हुए और उसी चिंता ने उन्हें बीमार भी कर दिया, एक तरफ इलाज के बाद स्वस्थ होने के उपरांत आशुतोष का नाम गांव के उसी स्कूल में लिखाया जिस स्कूल की शुरुआत उनके द्वारा की गई थी, आशुतोष की पढ़ाई गांव से ही होने लगी,इस बीच स्कूली पढ़ाई के साथ साथ बेटे का व्यवहारिक ज्ञान मजबूत हो इसकी कोशिश उनके पिता द्वारा की जाने लगी, स्कूल में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में भाषण प्रतियोगिता में शामिल कराने के साथ साथ स्वलिखित नाटकों में रोल दे कर और ख़ुद के निर्देशन में आशुतोष को अन्य विधाओं में भी पारंगत बनाने लगे, साथ ही उनकी खुद की पत्रकारिता हो ही रही थी,यहां यह भी बताऊं की आगे चल कर आशुतोष की लेखनी सुदृढ़ होनी थी तभी तो स्कूली किताब से कहीं ज़्यादा पिता की लिखी हुई ख़बर जो अखबारों में प्रकाशित होती थी उसे आशुतोष द्वारा पढ़ा जाने लगा, साथ ही जिस उम्र में बच्चे चंपक और कॉमिक्स पढ़ा करते थे उस वक्त आशुतोष बड़े बड़े लेखक गुलशन नंदा, शिवानी, रीमा भारती के उपन्यास और कई बड़ी किताबें पढ़ा करते थे,जो आज उनकी लेखनी को पढ़ कर बेशक समझा जा सकता है, यहां यह भी बताऊं की गांव के पास में ही अवस्थित गरदाहा हाई स्कूल में जब आशुतोष पढ़ा करते थे उस वक्त उनके पिता द्वारा स्कूल के सभी विषयों के शिक्षक को अपने घर के आस पास के घरों में मात्र इसलिए रखवाया गया ताकि आशुतोष बेहतर पढ़ाई कर सके, लोग बताते हैं की उस जमाने में वो शिक्षक ऐसे थे जिनसे पढ़ने वाले छात्र पढ़े होते तो वो बड़े पद पर आसीन होते, लेकिन आशुतोष के किस्मत में तो अधिकारी बनना नहीं लिखा था सो वो किसी किसी तरह पढ़ाई पूरी किए और फिर आगे की पढ़ाई करने एक बार फिर से डाल्टनगंज चले गए। शहर में उस वक्त सिनेमा का क्रेज हुआ करता था, अजय देवगन, गोविंदा और अक्षय कुमार का सिनेमा ने आशुतोष को बिगाड़ा भी और कुमार शानू के गानों ने आशिकी के गुर भी सिखाएं। लेकिन यह भी बताऊं की एक बार फिर पुराना चक्र घुमा और पढ़ाई को अधूरा छोड़ फिर वो घर को लौट आए, इस बीच पिता द्वारा घर में लगाए गए तब के WLL ग्रामीण टेलीफोन से गर्मी की दुपहरी में आशुतोष द्वारा दैनिक हिंदुस्तान अखबार के पलामू कार्यालय में बात की गई की आपका कांडी प्रखंड खाली है मैं वहां से रिपोर्टिंग करना चाहता हूं,उन्हें बताया गया की वो कार्यालय में आएं,एक रोज़ आशुतोष कार्यालय पहुंचते हैं जहां उनकी मुलाकात वरिष्ठ पत्रकार रविन्द्र मिश्रा से होती है,जिनके द्वारा नाम पता पूछने पर कहा जाता है की आप प्रियरंजन जी के लड़के हैं और आपने अपने पिता का संघर्ष देखा है और देख भी रहे हैं उसके बाद भी पत्रकारिता करना चाह रहे हैं,अंततः आशुतोष की पत्रकारिता की शुरुआत हिंदुस्तान अखबार से होती है,यहां बता दूं की मां के गर्भ से ही लिखना सीख कर आए आशुतोष की पत्रकारिता दिन ब दिन निखरती जाती है और फिर साल 2003 में वो तब के न्यूज़ चैनल सहारा समय से जुड़ते हैं जिसमें 2009 तक गढ़वा जिला में काम करने के बाद उनका तबादला पलामू जिला में कर दिया जाता है, जहां उनके द्वारा 2016 दिसंबर तक बेहतर पत्रकारिता किया गया, यहां पर यह भी बताना बेहद ज़रूरी है की आशुतोष रंजन की कुंडली में उल्लेखित है की लड़की महिलाओं से आप ज़्यादा क़रीब रहेंगे, तभी तो स्कूली जीवन से ले कर पलामू में कॉलेज की पढ़ाई और रिपोर्टिंग करने के दरम्यान भी उनकी मोहब्बत की चर्चाएं होती रहीं, पलामू में पत्रकारिता के दौरान एक बड़े पद पर आसीन महिला से उनकी नजदीकी की चर्चा जितना उस वक्त हुआ करता था वो चर्चाएं आज भी होती हैं, चुकी कुंडली में लिखा होने के कारण पिता जी द्वारा उनके रसिया होने पर ज्यादा एतराज कभी नही रहा, और आशुतोष द्वारा इसका नियमित फायदा भी मिलता। आशुतोष देखने में गबरू जवान लगते हैं। आज भी पलामू की गलियां, पलामू की शाम, पलामू में बने घरों के छत निहारा करती है की काश एक बार आशुतोष दिख जाएं। 2016 में पलामू छोड़ने के बाद आशुतोष गढ़वा वापस लौटे और न्यूज़ 11 से एक नई पारी की शुरुआत की,इस दरम्यान भी एक से बढ़ कर एक खबरों की बेहतर प्रस्तुति ने चैनल प्रबंधन के साथ साथ लोगों में भी आशुतोष की खास जगह बन गई, साल 2018 में आशुतोष द्वारा Bindash News नामक अपने पोर्टल के ज़रिए अपने ढंग से एक अलग लेखनी की शुरुआत की गई,जो अब तलक जारी है। इसी बीच उदर रोग से पीड़ित आशुतोष की तबीयत ज्यादा खराब हुई, दो ऑपरेशन करा चुके आशुतोष का अभी तीसरा ऑपरेशन होना बाकी है लेकिन बिना विचलित हुए बिना इस गंभीर हालात में भी आशुतोष की पत्रकारिता ज़ारी है, हां आशुतोष विचलित होते हैं, वो ऐसे की अपने मां के बेहद क़रीब रहने वाले आशुतोष की मां का निधन जब दो साल पहले हुआ तो उस वक्त से ही आशुतोष का टूटना शुरू हुआ, हर वक्त चेहरे पर मुस्कान लिए सबसे अपने अंदाज में मिलने वाले आशुतोष के उस मुस्कुराहट के पीछे असहनीय दर्द छुपा होता है,क्योंकि एक पल भी उनके जेहन से मां के बिछड़ने का दर्द नहीं हटता है,बैठे बैठे भावुक हो जाना और आंखों से आंसू का झरने लगना कभी भी उनके पास बैठ कर देखा जा सकता है। आशुतोष अपनी खबरों से या यूं कहे की बिंदास खबरों से नेता हो या अधिकारी सबकी खबर लेते रहते हैं। इसीलिए तो कहते हैं की यूं ही नही कोई आशुतोष बन जाता है, ये उनकी व्यक्तित्व दर्शन की मात्र एक झलक भर है, विस्तृत रूप से लिखूं तो उपन्यास लिख जायेगा।क्योंकि जितना हमने लिखा है उससे कहीं ज़्यादा कठिन उनके संघर्ष की कहानी है लेकिन मुफलिसी हालात में भी अमीर लेखनी की पत्रकारिता करने वाले आशुतोष सच में बिंदास हैं…प्रथम अध्याय..!!